गिरीश्वर मिश्र
औपनिवेशिक भारत में प्रमुख शिक्षा संस्थान भारतीयों को ‘विदेशी’ बनने या स्वीकार्य पश्चिमी मापदंडों के आधार पर अपनी सभ्यता का परीक्षण करने के लिए प्रशिक्षित करने का कार्य करते रहे. दूसरे शब्दों में भारतीयों को यूरोपीय लोगों की तरह सोचने और बनने के लिए ढाला गया. आवरण में छद्म रूप में स्वयं को प्रोत्साहित करने का यह प्रभावी उपाय अंग्रेजों की कामयाब तजबीज थी. फिर भारतीय लोग दूसरों द्वारा पेश किए गए अमूर्त और सैद्धांतिक औजारों के साथ खुद को समायोजित करते रहे और आज भी कर रहे हैं. ऐसे में वे मनुष्य के रूप में स्वायत्त या स्वाधीन जीवन कभी नहीं जी सकते. पश्चिमी दर्शन में ढले ऐसे भारतीय यह तर्क भी देते हैं कि वह एक सार्वभौमिक वैचारिक ढांचा है और इसके फलस्वरूप अधिकांशत: यूरो अमेरिकी ज्ञान मॉडल को अपनाकर उपनिवेशीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ाने का ही काम जारी कर रहे हैं. यूरोप समर्थित शैक्षणिक परंपरा पूरी दुनिया में दूसरों को भरसक हाशिये पर धकेलती रही है.
स्वतंत्रता मिलने के साथ उपनिवेशवाद से मुक्ति के प्रयास शुरू हो गए परंतु यह बात कि औपनिवेशिक साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली ज्ञान-प्रणालियों की जांच भी करनी चाहिए थी और उन्हें दी गयी महात्मा गांधी की चुनौती भी बिसरती गई और यह कार्य उपेक्षित ही रह गया. समसामयिक स्थिति यह है कि अनेक भारतीय संस्थानों के पाठ्यक्रम भारतीय परिप्रेक्ष्य की वास्तविकताओं या इसकी समस्याओं को भी पूरी तरह से प्रतिबिंबित नहीं करते हैं. यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में रह कर भारतीय शोधकर्ता भारतीय दर्शन और मूल्यों की सामग्रियों और गुणों से खुद को दूर कर लेते हैं. ऐसा तब है जब ज्ञान-सृजन की आधुनिक (औपनिवेशिक!) पद्धति से बहुत पहले भारत ज्ञान-मीमांसा की दृष्टि से गंभीर चिंतन का गढ़ था. आजादी के सात दशकों के बावजूद हम उधर ध्यान न दे सके. वि-उपनिवेशीकरण का आधार भारतीय होना चाहिए इस तथ्य को पहचान कर भारत में समकालीन उच्च संस्थानों और उनके उत्पादों, अनुसंधान प्रयासों और स्नातकों के लिए पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए. इस प्रसंग में उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम को नवाचारों के माध्यम से सजीव करने की जरूरत बहुत दिनों से महसूस की जाती रही है परंतु कोई ठोस कदम नहीं उठाया जा सका. यह प्रवृत्ति देशज विकास के प्रयासों में सदैव बाधक ही रहेगी.
देश की शैक्षणिक प्रणाली पर औपनिवेशिक पकड़ को खत्म करना एक कठिन कार्य सिद्ध हुआ है. वर्तमान में कई भारतीय संस्थानों के पाठ्यक्रम भारतीय परिप्रेक्ष्य की वास्तविकताओं या इसकी समस्याओं के ज्ञान को पूरी तरह से प्रतिबिंबित नहीं करते हैं. उच्च संस्थान प्रणालियों में भारतीय ज्ञान के वि उपनिवेशीकरण के प्रयासों को तभी स्पष्ट रूप से समर्थन दिया जा सकता है जब छात्रों को सिखाया जाए कि मौलिकता की राह पर कैसे चलें? और भारतीय स्थितियों के लिए विशेष और विशिष्ट समाधान की दिशा में कैसे सोचा जाए ? भारतीय ज्ञान के वि-उपनिवेशीकरण से ही पूर्ण स्वराज की प्राप्ति संभव होती है. नवोन्मेषी विचारों की शुरुआत करने से पहले सोचने के लिए ज्ञानमीमांसीय रूप से स्वतंत्र होना होगा. ज्ञानमीमांसीय मुक्ति मानसिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक स्वतंत्रता को जन्म देती है.
शिक्षा के उच्च संस्थानों ने भारतीय गतिशीलता पर अपनी पकड़ खो दी है. इसका एक खास कारण है ज्ञान को समायोजित करने के लिए भारतीय भाषाओं को विकसित करने में विफलता और ठोस और अमूर्त बौद्धिक प्रयासों के शिक्षण और उपयोग में इन भाषाओं को संस्थागत न बना पाना. इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि कई देश जो तकनीकी प्रगति में छलांग लगा रहे हैं, आविष्कारों में प्रगति कर रहे हैं और अकादमिक उत्कृष्टता की सीमाओं को तोड़ रहे हैं वे ही हैं जिन्होंने अपने शैक्षिक पाठ्यक्रम को अपने अनुसार अनुकूलित किया है. दुर्भाग्य से हमने अपनी सोच को उन सीमाओं के भीतर स्थापित कर लिया है जो पश्चिमी शिक्षा ने हमें दिया है या कि हम व्यावहारिक और अनुकरणीय विकल्प खोजने के लिए पर्याप्त उत्सुक नहीं हैं. चाहे जो भी हो, यूरो केंद्रित ज्ञान मॉडल में डूबने से हमारे विचारों का उपनिवेशीकरण लगातार बढ़ रहा है, और यह हमेशा विकास के प्रयासों में बाधा भी उत्पन्न कर रहा है.
भारतीय संस्कृति के संरक्षण और समकालीन अनुसंधान और वैचारिक वास्तविकताओं में उनके समावेश के अलावा, भारतीय विश्वविद्यालयों को भारतीय प्रतिभाओं और ज्ञान मीमांसा को ईमानदारी से चित्रित करने के लिए मौजूदा पाठ्यक्रमों और कार्यक्रमों का विस्तार करने में सक्षम और तैयार होना चाहिए. पाठ्यक्रम भारतीय विश्व दृष्टिकोण के पीछे छिपे तर्क और तर्कों पर प्रश्न पूछने और उनका विस्तार करने में सक्षम होने चाहिए. ये पाठ्यक्रम छात्रों और लोगों की रुचि को इस तरह से आकर्षित करने वाले होने चाहिए जो केवल औपचारिकताएं न निभा रहे हों बल्कि स्वयं और राष्ट्रीय पहचान की चेतना का आह्वान कर सकें. इसके साथ ही भारतीय मनीषा और अवधारणाओं का इस तरह से प्रसार होना चाहिए कि वे हमारी जरूरतों के और चुनौतियों का सामना करने में समर्थ हो सकें. इसलिए, उच्च शिक्षा पाठ्यक्रम को नए विचारों के कार्यान्वयन के माध्यम से एक नई जान फूंकने की जरूरत है. ऐसे कदम उठाना जरूरी है क्योंकि यह उन वैचारिक संरचनाओं को नया आकार देने में सहायक होगा जो वैश्विक समुदाय में भारतीयों की स्थिति को बेहतर बना सकेंगे.
(लेखक,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
हिन्दुस्थान समाचार