‘आजादी के गुमनाम नायक’ सीरीज में कहानी आजादी के महान क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ दास की, जिन्होंने भगत सिंह के लिए बम बनाए और जेल में 63 दिनों का अनशन किया. जो ब्रिटिश हुकूमत के सामने झुके नहीं, मरना स्वीकार किया.
9 साल की उम्र में मां चल बसीं
जतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कलकत्ता में हुआ था. जब वे मात्र 9 वर्ष के थे, उनकी मां सुहासिनी देवी का निधन हो गया, जिसके बाद उनके पिता ने उनका लालन-पालन किया. अपनी शिक्षा के दौरान, जतीन्द्र ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुए असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर स्वतंत्रता संग्राम में कदम रखा. इस क्रांतिकारी गतिविधि के कारण उन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने जेल भेज दिया. वहीं जब आंदोलन की गति धीमी पड़ी, तो जतीन्द्र को अन्य क्रांतिकारियों के साथ रिहा कर दिया गया. रिहाई के बाद उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की, लेकिन उनके दिल में देश की आजादी के लिए संघर्ष करने का जुनून और जज्बा पहले की तरह ही प्रबल बना रहा.
पहले जेल में किया 20 दिनों का अनशन
आगे चलकर जतीन्द्रनाथ दास की मुलाकात क्रांतिकारी नेता शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुई, जिनसे वे गहरे प्रभावित हुए. शचीन्द्रनाथ से संपर्क में रहते हुए, जतीन्द्रनाथ ने क्रांतिकारी विचारों को और भी अधिक आत्मसात किया. जब शचीन्द्रनाथ सान्याल ने ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना की, तो जतीन्द्रनाथ दास ने इसके निर्माण और इसे सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. अपने त्याग और साहस के बल पर जतीन्द्रनाथ ने संगठन में एक महत्वपूर्ण स्थान हासिल कर लिया.
शचीन्द्रनाथ सान्याल के अलावा, जतीन्द्रनाथ दास कई अन्य क्रांतिकारियों के संपर्क में भी आए और उस समय उन्होंने बम बनाना भी सीखा. 1925 में, उन्हें काकोरी कांड के सिलसिले में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. जेल में, उन्होंने कैदी क्रांतिकारियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार का विरोध किया और जेल प्रशासन के खिलाफ अनशन पर बैठ गए. 20 दिनों तक अनशन पर रहने के बाद, जेल अधीक्षक को अंततः उनके सामने झुकना पड़ा. उनके बढ़ते प्रभाव को देखते हुए, अधीक्षक ने उनसे माफी मांगी और उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया.
भगत सिंह के लिए बनाया बम
इतिहासकारों के अनुसार, जतीन्द्रनाथ दास भगत सिंह जैसे प्रमुख क्रांतिकारियों के करीबी सहयोगियों में से एक थे, और उनकी सुभाष चंद्र बोस के साथ भी घनिष्ठता थी. 1928 में, जतीन्द्र ने नेताजी के साथ मिलकर कोलकाता में कांग्रेस पार्टी को मजबूत करने के लिए काम किया.
इसी दौरान, भगत सिंह ब्रिटिश हुकूमत को हिलाने की योजना बना रहे थे. उनका उद्देश्य असेंबली में बम फेंककर अंग्रेजी शासन की गूंगी-बहरी सरकार को जगाना था. इस योजना के लिए भगत सिंह ने जतीन्द्रनाथ दास को चुना और उन्हें बम बनाने के लिए आगरा आने का निमंत्रण भेजा. भगत सिंह के इस बुलावे को स्वीकारते हुए, जतीन्द्र कोलकाता से आगरा आ गए. उनके द्वारा बनाए गए बम का उपयोग भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 1929 के असेंबली बम कांड में किया था.
14 जून 1929 को जतीन्द्रनाथ दास को गिरफ्तार कर लाहौर जेल में डाल दिया गया. जहां, उन्होंने कैदियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के खिलाफ अपनी नाराजगी जाहिर की.
63 दिनों के अनशन पर जतीन्द्र
इतिहासकारों के अनुसार, ब्रिटिश कैदियों को जहां अच्छे खाने और कपड़ों की सुविधा दी जाती थी, वहीं क्रांतिकारी कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था. उनके बैरकों में साफ-सफाई की कोई व्यवस्था नहीं थी, जिससे वे बीमार हो जाते थे. इन क्रांतिकारियों को जानवरों की तरह समझा जाता था, जेल के किचन में गंदगी, कीड़े-मकौड़े, और चूहों का बसेरा था. जतीन्द्रनाथ दास के लिए यह सब असहनीय था, और उन्होंने जेल प्रशासन से इस लापरवाही के खिलाफ शिकायत की. जब स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ, तो उन्होंने फिर से अनशन पर बैठने का निर्णय लिया.
रिपोर्टों के अनुसार, उनका अनशन 13 जुलाई 1929 को शुरू हुआ. अनशन के दौरान, जेल प्रशासन ने उन्हें समझाने की कई कोशिशें कीं, लेकिन जतीन्द्रनाथ अपने संकल्प पर अडिग रहे. प्रशासन ने उन्हें अनशन तोड़ने के लिए मजबूर करने का प्रयास भी किया, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत उनके इरादों को नहीं हिला सकी.
जतीन्द्रनाथ का स्वास्थ्य अनशन के दौरान लगातार बिगड़ता जा रहा था. ऐसे में जेल प्रशासन ने एक चाल चली. उन्होंने उनके पीने के पानी में कुछ गोलियां मिलाने का प्रयास किया, ताकि उनके शरीर को कुछ पोषण मिल सके. लेकिन जब जतीन्द्रनाथ को इस धूर्तता का पता चला, तो उन्होंने जल भी त्याग दिया. इसके बाद उनकी हालत तेजी से खराब होने लगी. जेल अधिकारियों ने बार-बार उनसे अनशन तोड़ने का अनुरोध किया, लेकिन जतीन्द्रनाथ दास ने स्पष्ट कर दिया कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होंगी, वे एक भी दाना नहीं खाएंगे.
दिन बीतता गया, पर जतीन्द्रनाथ अपने विरोध पर अड़े रहे. जिसके बाद जेल अधिकारियों ने जतीन्द्रनाथ दास पर जबरदस्ती नली डालकर उन्हें दूध पिलाने की कोशिश की. लेकिन जतीन्द्रनाथ ने एक झटके में खुद को छुड़ाने का प्रयास किया, जिससे दूध उनकी सांस की नली में चला गया. उनकी हालत तेजी से बिगड़ने लगी और उन्हें सांस लेने में कठिनाई होने लगी. इसके बावजूद, जतीन्द्रनाथ ने ब्रिटिश सरकार के सामने झुकने से इनकार कर दिया और अपनी मांगों पर अडिग रहे.
13 सितंबर 1929 को लाहौर में शोक की लहर दौड़ गई. सेंट्रल जेल में सन्नाटा छा गया, जब एक 25 वर्षीय युवक ने मौत को गले लगा लिया लेकिन झुकने से इंकार कर दिया. 63 दिनों के कठिन अनशन के बाद, क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ दास इस दुनिया को अलविदा कह गए. उनका देहांत हो चुका था, लेकिन उनके बलिदान ने स्वतंत्रता संग्राम में एक नया अध्याय जोड़ दिया.
उनके शव को ट्रेन से कोलकाता लाया गया
लाहौर में जतीन्द्रनाथ दास के चाहने वालों ने उनकी मौत के बाद जेल प्रशासन के खिलाफ इतना विशाल जुलूस निकाला कि ब्रिटिश हुकूमत हिल गई. पूरा शहर मानो विद्रोह पर उतर आया था. अंग्रेज़ों के दिलों में भय समा गया, और हर भारतीय की आंखों में आंसू थे.
जतीन्द्रनाथ की मृत्यु के बाद, उनके भाई किरण चंद्र दास को कोलकाता से लाहौर बुलाया गया. उनके शव को कोलकाता ले जाने के लिए ट्रेन का इंतजाम किया गया. जतीन्द्रनाथ की अंतिम यात्रा देखने के लिए लाहौर का पूरा शहर उमड़ पड़ा. उनके शव को गुलाब रंग की चादर से ढका गया था. यात्रा के दौरान विभिन्न स्टेशनों पर उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा. जब उनका शव कोलकाता पहुंचा, तो लाखों लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए. सुभाषचंद्र बोस सहित कई प्रमुख क्रांतिकारी भी वहां उपस्थित थे, और नम आंखों से जतीन्द्रनाथ दास को अंतिम विदाई दी गई.
आज भले ही जतीन्द्रनाथ दास हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके बलिदान को इतिहास में कभी भुलाया नहीं जा सकता. उन्हें किताब के कुछ पन्नों में गुमनाम के तौर पर छोड़ना न्याय नहीं होगा. उनका बलिदान हमेशा प्रेरणा का स्रोत रहेगा, और वे स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में एक अमर नाम बने रहेंगे.