नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा रहे हैं. कोर्ट पहले भी अपने कई फैसलों में इसे साफ कर चुका है. इन शब्दों की अलग-अलग व्याख्या हो सकती है. बेहतर होगा कि हम इन शब्दों को पश्चिमी देशों के संदर्भ में ना देखकर भारतीय संदर्भ में देखें.
जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने ये टिप्पणी संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई के दौरान की. यह याचिका भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी, अश्विनी उपाध्याय और बलराम सिंह की ओर से दायर की गई है. इससे पहले 9 फरवरी को सुनवाई के दौरान जस्टिस दीपांकर दत्ता ने कहा था कि ऐसा नहीं है कि प्रस्तावना में संशोधन नहीं किया जा सकता है लेकिन सवाल ये है कि क्या तारीख को बरकरार रखते हुए प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है. जस्टिस दत्ता ने वकीलों से अकादमिक दृष्टिकोण से इस पर विचार करने को कहा.
भाजपा के वरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दायर याचिका में 42वें संविधान संशोधन के जरिये धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को जोड़ने की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है. याचिका में कहा गया है कि 42वें संविधान संशोधन के जरिये इन शब्दों को जोड़ना गैरकानूनी है. याचिका में कहा गया है कि संविधान बनाने वालों ने कभी भी संविधान में समाजवादी या धर्मनिरपेक्ष विचार को लाना नहीं चाहा. यहां तक कि डॉ. बीआर अंबेडकर ने भी इन शब्दों को जोड़ने से इनकार कर दिया था.
हिन्दुस्थान समाचार