Holi 2025: रंगों का पर्व होली पूरे देशभर में बहुत ही जोश उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है. अकेले उत्तराखंड में भी होली के कई अनोखे रंग देखने को मिलते हैं, जहां संस्कृतियों और अनेक रीति रिवाजों के साथ पारंपरिक रूप से होली सेलिब्रेट की जाती है. यहां देवभूमि की ऐसी ही खास होली के बारे में बताने जा रहे हैं.
कपिलेश्वर महादेव मंदिर की होली

नैनीताल से कुछ दूरी पर स्थित मोना ल्वेशाल गांव की होली काफी प्रसिद्ध है. भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर में भस्म से होली खेली जाती है. इस मंदिर में सामुहिक खड़ी होली का आयोजन किया जाता है. आस-पास के गांव के लोग आकर भगवान शिव को अबीर-गुलाल और भस्म अर्पित की जाती है.
कुमाऊं में बैठकी होली

कुमाऊं मंडल के अल्मोड़ा में इस 150 सालों से अलग अंदाज में होली मनाई जाती रही है. इसकी शुरुआत पौष महीने से ही हो जाती है. अल्मोड़ा में होल्यारे देर रात तक होली का रंग जमाते हैं और वैठकी होली आयोजित करते हैं.
पिथौरागढ़ में होली (छरड़ी) का अनोखा एहसास

उत्तराखंड में होली को छरड़ी के नाम से भी जाना जाता है. पिथौरागढ़ की सोर घाटी में अलग तरीके से होली को सेलिब्रेट किया जाता है. जहां पूरे दिन होल्यार ढोल, हारमोनियम और पहाड़ी वाद्य यंत्रों की थाप पर गीत गाते है. रात में भी कड़कड़ाती ठंड में बैठकी होली आयोजित होती है. इसके अगले दिन भोज-भंडारे के साथ होली संपन्न होती है.
बागेश्वर में पत्थर वाली होली

बागेश्वर और उसके तराई वाले इलाकों में पत्थर मारने वाली होली मनाई जाती है जिसे बैगवाल होली भी कहा जाता है. इसमें लोग हल्के पत्थरों से एक दूसरे को होली की बधाई देते हैं.
400 साल पुरानी होली की परंपरा

उत्तराखंड में कुमाऊंनी होली काफी प्रसिद्ध है. इसकी शुरुआत 15 वीं सदी में चम्पावत के चंद राजाओं के महल और काली कुमाऊं के कई क्षेत्रों में की थी. इसके बाद यह पूरे कुमाऊं मंडल तक फैली जिसका इतिहास 400 साल पुराना है. ढोल की थाप और रागनियों के राग पर हर साल यूं ही धूमधाम सो जोश और उत्साह के साथ मनाया जाता है.