Captain Deepak Singh Shourya Chakra: उत्तराखंड के वीर सपूत बलिदानी कैप्टेन दीपक सिंह को शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया है. मरणोपरांत ये सम्मान उनकी माता (चंपा सिंह) और पिता (महेश सिंह) ने देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के हाथों से प्राप्त किया. बता दें कि कैप्टन दीपक सिंह कॉर्प्स ऑफ सिग्नल्स के 48 राष्ट्रीय राइफल्स में तैनात थे. उन्होंने जम्मू कश्मीर के डोडा में 14 अगस्त 2024 को आतंकियों के खिलाफ लड़ते हुए केवल 25 साल की उम्र में देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया. उनके अदम्य साहस को वीरता को देते हुए यह सम्मान दिया गया है.
देश कर रहा है वीर सपूत को याद

कैप्टन दीपक सिंह ने न केवल अपनी आखिरी सांस तक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उसे मुंहतोड़ जवाब दिया बल्कि यह भी यह भी बताया कि देश के लिए कुछ कर गुजरने की कोई उम्र नहीं होती. उनके सैन्य और पराक्रम की अमिट छाप देश पर हमेशा-हमेशा के लिए छप चुकी है. जो बदलते समय के साथ और भी ज्यादा गहरी होगी. आज इस अर्टिकल में कैप्टन दीपक सिंह के पूरे जीवन और शौर्य चक्र के बारे में बताने जा रहे हैं.
कैप्टन दीपक सिंह को विरासत में मिला अनुशासित जीवन
कैप्टन दीपक सिंह उत्तराखंड के देहरादून के रहने वाले थे. उनका जन्म खूबसूरत गांव अल्मोड़ा जिले में सन 1999 में हुआ, जहां वो कुछ सालों तक पले-बढ़े. इसके बाद पूरा परिवार देहरादून शिफ्ट हो गया. कैप्टन सिंह के पिता श्री महेश सिंह उत्तराखंड में पूर्व पुलिस अधिकारी के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. इसी कारण घर में शुरूआत से ही अनुशासित और संयमित माहौल मिलने से दीपक सिंह के अंदर कर्तव्य और सेवा भाव के मूल्य पहले ही रोपित हो गए. उनकी परवरिश मां चंपा सिंह और दो प्यारी बड़ी बहनों मनीषा और ज्योति के देखभाल में हुई.
बहनों के लाडले रहे कैप्टन दीपक सिंह

कैप्टन दीपक सिंह के हमेशा ही अपनी दोनों बहनों के लाडले रहे, जिनका लाड़ और दुलार भी उन्हें खूब मिला. तस्वीरों में यह बात साफ नजर आती है. कैप्टन के बलिदान होने से 3 महीने पहले ही उनकी छोटी बहन की शादी हुई थी. बड़ी बहन मनीषा शादी करके केरल के कोच्चि में रह रही हैं. भाई के शहादत की खबर परिवार को रक्षाबंधन से ठीक 5 दिन पहले मिली, जोकि पूरे परिवार के साथ दोनों बहनों और मां के लिए तोड़ देने वाला था. खबर मिलते ही पिता महेश देहरादून के लिए फ्लाइट से रवाना हो गए. वहीं ये दोनों बहनों से ज्यादा छिपी न रह सकीं. इसके बाद पूरे परिवार में मातम फैल गया.
बचपन से ही सेना की तरफ आकर्षण
परिवार में सबसे छोटे होने की वजह से काफी शरारती और मस्तीखोर भी थे, उनकी ये मस्तियां सभी को पसंद आती थी. वहीं बचपन से ही दीपक सिंह का उत्साह सशस्त्र बलों की तरफ रहा, जिसे दिशा देने के लिए उन्होंने अपने पढ़ाई के दिनों से ही सपने पर काम करना शुरू कर दिया. यह एकस्ट्रा मेहनत आगे उन्हें आगे तक लेकर गई. दीपक ने स्कूली शिक्षा के रूप में बारहवीं तक देहरादून के सेंट थामस स्कूल में पढ़ाई की. इसके बाद 2020 में वो तकनीकी प्रवेश योजना (TES) के जरीए भारतीय सेना में शामिल हो गए.
दृश निश्चयी होने के चलते कम उम्र में ही मिली बड़ी जिम्मेदारी
ये कैप्टन की कड़ी मेहनत और दृढ़ इच्छाशक्ति ही थी कि साल 2020 में बिहार के गया में प्रतिष्ठित अधिकारी प्रशिक्षण अकादमी (OTA) को सफलतापूर्वक पास किया और वहां पर उन्हें सिग्नल कोर में लेफ्टिनेंट के रूप में शामिल कर दिया गया. ये कैप्टन दीपक के साथ ही उनके पूरे परिवार के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी, जो हर बात में उनके साथ खड़ा रहा. बता दें कि सिग्नल कोर हमारी भारतीय सेना की ही एक महत्वपूर्ण शाखा है. इसका काम युद्ध और शांति दोनों ही स्थितियों में निर्बाध और अच्छी संचार सहायता देना है.
कैप्टन दीपक के जीवन में ये केवल एक माइलस्टोन था, वो यहीं नहीं रुके और अपने पेशेवर कौशल को निखारते रहे. वो न केवल सैन्य जीवन की कठोरताओं में ढलते रहे बल्कि समय-समय पर अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन भी किया. टीम स्पिरिट और नेतृत्व गुणों ने कैप्टन दीपक को एक मजबूत सैनिक के रूप में विकसित होने में मदद की. उनकी विनम्रता के चलते सैनिकों के साथ वरिष्ठ अधिकारी भी उनका सम्मान करते थे. कुछ सालों तक अपनी मूल इकाई के साथ देश की सेवा करने के बाद, कैप्टन दीपक सिंह को 48 राष्ट्रीय राइफल्स बटालियन में नियुक्त कर दिया गया.
हॉकी और टेनिस में थी खास रुची, लगाया मेडलों का अम्बार

कैप्टन दीपक सिंह केवल रणभूमि ही नहीं बल्कि खेल में मैदान में भी काफी दमदार प्रदर्शन करते दिखे. वो मुख्य तौर पर हॉकी और टेनिस खेलते थे. एक बेहतरीन खिलाड़ी होने के नाते कई मौके पर उन्होंने दमदार प्रदर्शन किया. ऐसे में टीम वर्क की भावना और डिसीप्लिन के गुण और भी निखर सके. मीडिया में दिए गए एक इंटरव्यू में उनके पिता ने बताया कि दीपक के सभी मेडल आज भी घर में मौजूद हैं. वहीं उसने इतने मेडल जीते कि उन्हें लगाने तक की जगह भी अब नहीं बची है.
क्या है 48 राष्ट्रीय राइफल्स बटालियन?
यह काउंटर इंसर्जेंसी फोर्स (CIF) के हिस्से के रूप में भी काम करती है. इसे व्हाइट नाइट कॉपर्स के रूप में भी जाना जाता है. भारतीय सेना की सबसे बेहतरीन परिचालन कोर के रूप में काम करती है. इसका काम मुख्य रूप से शिवालिक पर्वतमाला तक और जम्मू अखनूर के मैदानी इलाकों की देखभाल और सुरक्षा करते हैं. भारतीय सेना की यह शाखा रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत आती है और आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन का जिम्मा उठाती है. वर्तमान में ये 48 RR जम्मू-कश्मीर के साथ लद्दाख के कई भागों में भी तैनात है.
डोडा जिले में अस्सार ऑपरेशन: बहादुरों की वीरता की अनोखी मिसाल

कैप्टन दीपक सिंह को साल 2024 में यूनिट 48 आरआर (राष्ट्रीय राइफल्स) के तहत जम्मू कश्मीर के डोडा में तैनात किया गया था. उसी वक्त से उन्हें आतंकवाद विरोधी अभियानों में लगाया गया. खुफिया सूत्रों से मिली जानकारी के आधार पर राष्ट्रीय राइफल्स की यूनिट ने 13 अगस्त 2024 को जम्मू कश्मीर पुलिस के साथ डोडा जिले के घने शिवगढ़ और अस्सार के जंगलों में तलाशी और घेराबंदी अभियान शुरू किया. उस दौरान कैप्टन दीपक सिंह और उनकी टीम जैश-ए-मोहम्मद के आतंकियों के समुह को खदेड़ने के लिए सर्च ऑपरेशन चलाया जा रहा था. गुप्त सूत्रों के मुताबिक आतंकी घुसपैठ कर चुके थे, सुरक्षाबलों ने इलाके को घेर कर गोलीबारी शुरू कर दी.
कैप्टन दीपक ने संभाला मोर्चा
कैप्टन दीपक सिंह की अध्यक्षता में दो टीमों ने मोर्चा संभाला, इस दौरान कैप्टन ने अपने दस्ते को आगे बढ़ाया. इन्होंने आतंकवादियों के करीब पहुंचकर तेजी से गोलीबारी शुरू कर दी. इस दौरान कैप्टन सिंह ने अपना फोकस बनाए रखा और टीम का नेतृत्व करते हुए आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब दिया. सुबह होते ही सर्च ऑपरेशन को फिर से बहाल किया गया. M4 असॉल्ट राइफल्स, गोला बारूद और ग्रेनेड की सफलतापूर्वक बरामदगी हुई. इससे दुश्मन कमजोर पड़ा और सेना को सफलता मिली. मगर इस बीच एक घायल आतंकी जिसे उसके ग्रुप ने छोड़ दिया था वो पत्थर के पीछे से फायरिंग करने लगा.
आतंकियों के नापाक मंसूबों को किया ढेर
इस मुठभेड़ के बीच कैप्टन दीपक सिंह की टीम पर अचानक गोलीबारी शुरू हो गई. इस दौरान कैप्टन सिंह को सीने में गोली लगी इसके बावजूद भी उन्होंने डॉक्टर के पास जाने से मना कर दिया. साथ ही उन्होंने सटीकता से आतंकवादियों पर गोली चलाना जारी रखा. इस गोलीबारी में एक आतंकी मारा गया और आखिर में बाकियों को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा.
उस बीच नापाक इरादों वाले आतंकी अपनी योजनाओं में विफल रहे और कैप्टन दीपक सिंह ने अपने साथी को सुरक्षित पीछे धकेल कर गोलियों का सामना किया. लंबे वक्त तक दोनों तरफ से गोलीबारी चलती रही. इस दौरान गंभीर रूप से घायल हुए कैप्टन दीपक सिंह को अस्पताल ले जाया गया मगर देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देते हुए बीच रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया.
गोली लगने के बाद भी लड़ते रहे कैप्टन दीपक
कैप्टन सिंह ने अदम्य साहस और वीरता का परिचय देते हुए न केवल मातृभूमि की रक्षा की बल्कि दुश्मन को भी सीमा से बाहर खदेड़ा. ऐसे देश के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले वीर सपूत सदियों में ही कभी जन्म लेते हैं और यह ही नहीं बल्कि आने वाली भावी पीढ़ियां भी उनके पराक्रम से प्रेरित होंगी.
आदरणीय राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु जी ने अद्वितीय साहस और सर्वोच्च बलिदान के प्रतीक, कॉर्प्स ऑफ सिग्नल्स की 48 राष्ट्रीय राइफल्स के वीर शहीद, उत्तराखण्ड के अमर सपूत कैप्टन दीपक सिंह जी को मरणोपरांत शौर्य चक्र से अलंकृत किया।
अगस्त 2024 में आतंकवादियों से मुठभेड़ के दौरान… pic.twitter.com/5Zv5YqdLWL
— Pushkar Singh Dhami (@pushkardhami) May 22, 2025
कैप्टन सिंह को उनकी वीरता, कर्तव्य के प्रति दृढ समर्पण वीरता को देखते हुए मरणोपरांत उन्हें शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया. इसके लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा. इस दौरान उनके माता और पिता ने इस सम्मान को ग्रहण किया और वो काफी भावुक नजर आए. बता दें दिवंगत कैप्टन के पिता उत्तराखंड पुलिस में सेवानिवृत अधिकारी हैं और और पुलिस निरीक्षक के रूप में पुलिस में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. इसे लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भी एक्स हैंडल पर ट्वीट कर उनके पराक्रम और देश के प्रति समर्पत को याद किया.
क्या है शौर्य चक्र ?

शौर्य चक्र देश में वीरता के लिए दिए जानें वाले बड़े सम्मानों में से एक है. सेना और इससे जुड़ी ब्रांचों में इसे वीरता और पराक्रम से जोड़कर भी देखा जाता है. इसे सम्मान को शांति काल में अद्वितीय वीरता और साहस के लिए प्रदान किया जाता है. इस पदक की शुरूआत 4 जनवरी 1952 शुरुआत में इसका नाम “अशोक चक्र, श्रेणी-III” था. शौर्य चक्र का नाम अशोक चक्र और कीर्ति चक्र के बाद आता है. साल 1967 में इस पदक का नाम बदल कर शौर्य चक्र कर दिया गया.
“शौर्य चक्र” पदक के बारे में
पदक के बारे में – ये पदक आकार में गोलाकार होता है, ये कांसे का बना होता है. इसका व्यास 1.376 इंच का होता है और सामने के हिस्से के बीचों बीच अशोक चक्र और भारत सरकार का चिन्ह बना होता है. इसको सुंदर दिखाने के लिए चारों ओर कमल के फूलों की बेल बनी हुई होती है. वहीं इसके पीछे हिंदी और अंग्रेजी में अशोक चक्र खुदा हुआ होता है. साथ ही इन शब्दों के बीच कमल के दो फूल बने होते हैं.
शौर्य चक्र का फीता – इसका फीता हरे रंग का होता है, जिन पर बीच में 3 सीधी रेखाएं बनी होती हैं. बता दें कि ये रेखाए फीते को 4 बराबर भागों में विभाजित करती हैं. आगे अच्छा प्रदर्शन करने पर इस फीते पर बार लगा लगा दिया जाता है और बाद में इन बार की संख्या बढ़ती जाती है.
शौर्य चक्र में 6000 हजार रुपये प्रति महीना की राशि दी जाती है. साथ ही कई राज्य सरकारें एकमुश्त राशि भी प्रदान कर देती हैं. इस पुरस्कार की राशि राज्यों के हिसाब से अलग-अलग हो सकती है. साथ ही कुछ राज्यों में सरकरी नौकरी के पदों में प्राथमिकता भी दी जाती है.
किसे मिलता है शौर्य चक्र?
ये पदक भारत सशस्त्र बल (थल सेना, नौसेना, वायुसेना) के सैनिकों को वीरता के काम करने के लिए दिया जाता है.
इसके साथ यह केंद्र के अर्धसैनिक बलों, पुलिस बलों को भी दिया जाता है. वहीं आतंकवाद के खिलाफ असाधारण वीरता का प्रदर्शन करने वाले आम नागरिकों को भी ये सम्मान दिया जाता है. वहीं पुरुष और महिला सैनिकों में से किसी को भी ये पुरस्कार दिया जाता है.
यह पुरस्कार मरणोपरांत भी दिया जाता है, यदि व्यक्ति वीरता दिखाते हुए शहीद हो गया हो तो ऐसी स्थिति में उसके परिवार के सदस्य को राष्ट्रपति द्वारा सम्मान सौंपा जाता है.
उत्तराखंड को देवों के साथ-साथ वीरों की भूमि भी कहा जाता है. प्रदेश के 188 वीर सैनिकों को अब तक शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया है. यह संख्या राज्य की वीरता और समर्पण को दर्शाती है. वहीं इस पराक्रम के रूप में दिए जाने वाले पुरस्कारों की सूची इस प्रकार से है.
उत्तराखंड में वीरता के पुरस्कारों की संख्या
1. परमवीर चक्र 1
2. अशोक चक्र 6
3. महावीर चक्र 13
4. कीर्ति चक्र 32
5. शौर्य चक्र 188
यह भी पढ़ें – घांघरिया से हेमकुंट तक: सबसे ऊंचा गुरुद्वारा और कठिन ट्रेक, जानें आत्मा को छू लेने वाले सफर हेमकुंड साहिब से जुड़े जरूरी बिंदु
यह भी पढ़ें – उत्तराखंड की महिलाओं के आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते कदम, जानें राज्य की अर्थव्यवस्था में कैसे दे रही हैं योगदान?