इस समय वनवासी कल्याण आश्रम का काम देश के हर वनवासी जिले में विद्यमान है। उसके माध्यम से हजारों विद्यालय और छात्रावास चल रहे हैं पर जब यह काम प्रारम्भ हुआ, तब अनेक कठिनाइयां थीं। उन सबमें धैर्य, परिश्रम और सूझबूझ से इस नये काम को खड़ा करने में श्री बालासाहब देशपांडे के साथ मोरुभाऊ केतकर ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नागपुर में जिस दिन गणेश चतुर्थी का पर्व उत्साह एवं हर्षोल्लास से मनाया जा रहा था उसी दिन 14 सितम्बर, 1914 हरिभाऊ खापरी के घर एक बालक ने जन्म लेकर परिवार के लिए गणेश चतुर्थी के पर्व का महत्व बढ़ा दिया।
का जन्म को नागपुर में हुआ था। उस दिन पूरे नगर में गणेश चतुर्थी पर्व उत्साह से मनाया जा रहा था। पिता श्री हरिभाऊ खापरी जो रेलवे में स्टेशन मास्टर थे ने बेटे का नाम रखा मोरुभाऊ केतकर। पांच भाई और दो बहिनों वाला यह भरापूरा परिवार था।
1925 में डा. केशव राव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में संघ की स्थापना की तो उसके कुछ समय बाद मोरुभाऊ जी की डॉ हेडगेवार से मुलाकात जो धीरे धीरे बैठको में बदल गई। इसके बाद इनका स्वयंसेवक जीवन प्रारम्भ हो गया। संघ के प्रारम्भ काल से ही इनका डा. हेडगेवार से निकट सम्बन्ध और आत्मयता हो गई थी जिसके कारण यह लगातार अपना ज़्यादा समय संघ कार्य में देने लगे । 18 वर्ष की आयु में 1932 में बनारस बोर्ड से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने ब्रुक बांड चाय कम्पनी में नौकरी कर ली। चाय बेचने के लिए इन्हें नागपुर, छिंदवाड़ा, जबलपुर, बालाघाट, सिवनी आदि में बार-बार जाना पड़ता था। कुछ ही समय में वे इससे ऊब गये। अतः 1943 में पूरी तरह से संघमय होने से इन्होंने नौकरी छोड़कर प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया। इन्हें सर्वप्रथम रायपुर विभाग का काम दिया गया। इसमें रायपुर, बिलासपुर, बोलांगीर, संबलपुर आदि जिले शामिल थे।*
1945 में इन्हें निमाड़ तथा 1947 में जबलपुर विभाग प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। 1947 में मिली स्वतंत्रता के बाद 1948 के प्रतिबंध के समय इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मोरुभाऊ तीन मास जेल में रहे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद वातावरण में बड़ी हताशा व्याप्त थी। कई कार्यकर्ताओं की नौकरी छूट गयी थी। कई प्रचारक भी वापस लौट गये थे पर मोरुभाऊ केतकर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और संघ कार्य के लिए दोबारा से जुट गए। 1950 में उन्हें खंडवा, होशंगाबाद व बैतूल जिले का काम दिया गया। इन्होंने निराश न होते हुए पूरी लगन और मेहनत से नये सिरे से संघ का काम खड़ा किया।
संघ ने गहन विचार के बाद समाज के अन्य क्षत्रों में काम को शुरू करने के लिए निर्णय हुआ।
इस योजना के अंतर्गत ठक्कर बापा के प्रयत्नों से जशपुर के वनवासी क्षेत्र में काम प्रारम्भ हुआ था। संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री बालासाहब देशपांडे भी इसमें सहयोग कर रहे थे। शासन इससे राजनीतिक लाभ उठाना चाहता था; पर यह बालासाहब को पसंद नहीं था। ठक्कर बापा के देहांत के बाद बालासाहब ने श्री गुरुजी से बात कर ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के नाम से स्वतन्त्र काम खड़ा करने का सुझाव दिया। श्री गुरुजी इससे सहमत हुए और उन्होंने मोरुभाऊ केतकर को बालासाहब के साथ वनवासी क्षेत्र में काम करने को कहा।
इस प्रकार मोरुभाऊ केतकर के जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। 19 नवम्बर, 1952 को वे जशपुर पहुंचे। वहां के महाराज विजयभूषण सिंह ने उनके काम में पूर्ण सहयोग दिया। उन्होंने वहां वनवासी बालकों और बालिकाओं के लिए अलग-अलग छात्रावास प्रारम्भ किये। वनवासी कल्याण आश्रम के वर्तमान अध्यक्ष श्री जगदेव राम उरांव भी इसी छात्रावास की देन हैं। 12 वर्ष वहां रहकर तथा वहां के काम को दिन रात के कठिन परिश्रम से एक सुदृढ़ आधार प्रदान कर मोरुभाऊ केतकर ने जशपुर से 150 कि.मी की दूर बगीचा नामक स्थान पर एक नया छात्रावास प्रारम्भ किया। इस जी तोड़ परिश्रम से इनका शरीर थक गया और नौ जून, 1993 को वे स्थायी विश्रान्ति पर चले गये। उनके द्वारा किये कार्यों के कारण ही पूरे देश में आज वनवासी कल्याण आश्रम का पौधा मजबूत पेड़ बन चुका है और इसमें संघ की योजना से पूरे देश मे कार्यकर्ता जनजातीय समुदाय के उत्थान के लिए दिन रात मेहतन कर रहें है। कार्यकर्ताओं के परिश्रम का फल है कि इन इलाकों में धर्म बदल चुके लोग वापिस सनातन धर्म अपना रहें है।