आमतौर पर गिरफ्तारी वारंट का नाम सुनकर किसी भी व्यक्ति में भय पैदा हो जाता है. इस भय का लाभ उठाकर कई लोग छल कपट भी कर लेते हैं. गिरफ्तारी वारंट जारी करने और उसके एक्जीक्यूशन के लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1908 में व्यवस्थित प्रक्रिया दी गई है. दंड प्रक्रिया संहिता ही वह कानून है जिसके ज़रिए भारत में गिरफ्तारी वारंट की उत्त्पति हुई है. संहिता की धारा 70 से 80 तक गिरफ्तारी वारंट के संबंध में प्रावधान है.
गिरफ्तारी का वारंट सदैव किसी अदालत या फिर सेमी ज्यूडिशियल कोर्ट जैसे कलेक्टर, एसडीएम इत्यादि द्वारा जारी किया जाता है. इन लोगों के अलावा किसी भी व्यक्ति के पास गिरफ्तारी वारंट जारी करने की शक्ति नहीं है. गिरफ्तारी वारंट जारी करने की शक्ति अदालत के पास होती है. यह शक्ति अदालत को इसलिए दी गई है क्योंकि अदालत जिस व्यक्ति को किसी मुकदमे में बुलाना चाहती है उसे पुलिस के मार्फ़त बुला सकें. जैसे किसी प्रकरण में यदि अदालत को किसी व्यक्ति के बयान लेने है तब भी वह उस संबंधित व्यक्ति को गिरफ्तारी का वारंट जारी कर सकती है.
किसी प्रकरण में यदि कोई व्यक्ति आरोपी है और वह व्यक्ति अदालत के सामने उपस्थित नहीं हो रहा है जिससे कार्यवाही को आगे चलाया जा सकें तब अदालत गिरफ्तारी का वारंट जारी कर उस संबंधित व्यक्ति को अदालत के समक्ष बुलाती है. किसी व्यक्ति ने अगर परिवादी के रूप में कोई प्रकरण अदालत में लगाया है तब आरोपी यदि अदालत के समक्ष उपस्थित नहीं होता है तब भी अदालत गिरफ्तारी का वारंट जारी कर देती है.
गिरफ्तारी का वारंट आमतौर पर पुलिस को ही जारी किया जाता है. अदालत वारंट बनाकर संबंधित थाना क्षेत्र के थाना प्रभारी के नाम पर जारी कर देती है और उसे यह आदेश देती है कि किसी भी सूरत में उक्त नामित व्यक्ति को गिरफ्तार कर अदालत के समक्ष लाया जाए. हालांकि यहां पर कानून ने अदालत की इस शक्ति को थोड़ा लचीला करते हुए शक्ति को विस्तृत कर दिया है और संहिता की धारा 72 में यह प्रावधान किया गया है कि अदालत किसी भी व्यक्ति को ऐसा वारंट जारी कर सकती है जो वारंट में नामित व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए सक्षम होगा.
जब अदालत किसी भी गिरफ्तारी वारंट को जारी करती है तब वह वारंट दो ही स्थितियों में समाप्त होता है. पहली स्थिति में जब पुलिस नामित व्यक्ति को गिरफ्तार कर अदालत के सामने पेश कर दे या फिर वारंट में नामित व्यक्ति स्वयं अदालत के समक्ष सरेंडर कर दे. जेल जाने या नहीं जाने का प्रश्न उस मूल प्रकरण पर निर्भर करता है जिसके लिए किसी व्यक्ति को अदालत ने सामने समक्ष बुलाया है. जैसे यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी वारंट जारी करके बयान देने के लिए अदालत ने बुलाया तब उसके बयान देने पर अदालत का लक्ष्य पूरा हो जाएगा, बयान लेकर उस नामित व्यक्ति को छोड़ दिया जाएगा.
किसी गैर जमानती अपराध में यदि किसी व्यक्ति को आरोपी बनाने हेतु वारंट जारी किया गया है तब उसे जेल भी जाना पड़ सकता है क्योंकि गैर जमानती अपराध में जमानत मांगना अभियुक्त का अधिकार नहीं होता है. किसी जमानती अपराध में जेल नहीं जाना पड़ता है इसलिए ऐसे अपराध में जारी किये गए गिरफ्तारी के वारंट में जमानत मिल जाती है. कुलमिलाकर किसी व्यक्ति का जेल जाना या नहीं जाना उस प्रकरण पर निर्भर करेगा जिसके लिए वारंट जारी किया गया है.
किसी अदालत द्वारा जारी किए गए गिरफ्तारी के वारंट में पुलिस की जिम्मेदारी केवल व्यक्ति को गिरफ्तार करके अदालत के समक्ष पेश करने तक ही होती ह. पुलिस किसी भी व्यक्ति को सीधे जेल नहीं भेजती है हालांकि वह उक्त वारंट में नामित व्यक्ति को चौबीस घंटे तक थाने में अपनी अभिरक्षा में रख सकती है. फिर पुलिस गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को अदालत के सामने पेश कर देती है.