सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे की अंतरराष्ट्रीय कस्टडी से संबंधित एक फैसले में गार्डीअन एंड वार्ड एक्ट 1890 की धारा 17 (3) पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया कि कोर्ट नाबालिग की प्राथमिकताओं पर विचार कर सकता है, यदि वह इतना बड़ा/बड़ी है कि विवेकपूर्ण प्राथमिकताएं तय कर पाए. तीन जजों की खंडपीठ, जिसमें जस्टिस यूयू ललित, इंदु मल्होत्रा, और हेमंत गुप्ता (2: 1) शामिल थे, ने एक पिता को बच्चे की कस्टडी की अनुमति देते हुए, उक्त नियम लागू किया. पीठ ने बच्चे के साथ, उसकी आकांक्षाओं और इच्छाओं का पता लगाने के लिए, व्यक्तिगत रूप से बातचीत की.
सुप्रीम कोर्ट ने मौजूदा मामले में (स्मृति मदान कंसाग्रा बनाम पेरी कंसाग्रा) उस सिद्धांत की पुष्टि की, जिसमें कहा गया है कि पैरेन्स पेट्रिआ अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते समय, एकमात्र और सर्वोपरि विचार बच्चे के हित और कल्याण का संरक्षण करना होगा. इसलिए, यह तय करने के लिए कि बच्चे के हित में क्या है, अदालत विभिन्न कारकों को ध्यान में रखा। यह दर्ज किया गया कि इन नील रतन कुंडू बनाम अभिजीत कुंडू (2008) मामले में इन मार्गदर्शक कारकों का निर्धारण किया गया है और जीडब्ल्यूए की धारा 17 में भी निर्धारित किया गया है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नाबालिगों के साथ कोर्ट व्यक्तिगत रूप से बातचीत कर इस प्रकार के विचारों को समझ सकता है, और बच्चों की कस्टडी के मुद्दे पर नाबालिगों की पसंद न्यायिक फैसले की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है.फैमिली कोर्ट, हाईकोर्ट और काउंसलर की रिपोर्ट पर भरोसा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि नाबालिग ने अपने पिता के प्रति अधिक स्नेह दिखाया है और दोनों का संबंध वास्तविक था.
यह देखते हुए कि नाबालिग की कस्टडी के मुद्दे को निर्धारित करने के लिए धारा 17 (3) के अनुसार बच्चे की प्राथमिकताएं महत्वपूर्ण हैं, सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कस्टडी का हस्तांतरा पिता को करना बच्चे के हित में होगा, यदि उसकी प्राथमिकताओं को उचित सम्मान नहीं दिया गया था, इसका उस प्रतिकूल मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है.पीठ ने केन्या में स्थित बच्चे के पिता को कस्टडी की अनुमति देते हुए “मिरर ऑर्डर” की अवधारणा को भी लागू किया. जस्टिस हेमंत गुप्ता ने बहुमत के इस फैसले से असहमति जताई कि बच्चे की कस्टडी दिल्ली स्थति उसकी मां के पास ही रहनी चाहिए.