देहरादून: दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र की ओर से सोमवार को पुस्तकालय सभागार में उत्तराखंड की जल व्यवस्था पर गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया. विशेषज्ञों ने राज्य में घटते भू-जल भंडार और समग्र रूप से जल संसाधनों के कुप्रबंधन पर चिंता जताई.
दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के संस्थापक निदेशक रहे प्रोफेसर बीके जोशी ने राज्य के घटते जल संसाधनों पर एक सिंहावलोकन प्रदान किया. सेवानिवृत्त पीसीसीएफ एआर सिन्हा ने जलागम विकास और नदी के प्रवाह को बनाए रखने में जलस्रोतों और धाराओं की भूमिका पर अपना अनुभव साझा किया. उन्होंने जल विज्ञान, जल को नियंत्रित करने में वृक्ष प्रजातियों और वनस्पति आवरण की भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया. टाटा ट्रस्ट के डॉ. विनोद कोठारी ने स्प्रिंगशेड प्रबंधन के बारे में ज्ञान और सीख साझा की. राज्य में जलस्रोत सूची तैयार करने के कार्य पर काम करने की आवश्यकता पर बल दिया. उन्होंने बताया कि राज्य में 90 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण आबादी पीने के पानी और अन्य जरूरतों के लिए जलस्रोतों पर निर्भर है. जलस्रोत को आजीविका के अवसरों से जोड़ना जल संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है.
पूर्व में उत्तराखंड सरकार और राज्य योजना आयोग से जुड़े एचपी उनियाल ने जलस्रोत प्रबंधन पर अपने विचार साझा किए. उन्होंने बताया कि स्प्रिंग्स के हाइड्रोजियोलॉजी को समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है. स्प्रिंगशेड प्रबंधन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्ट्रेट जैकेट दृष्टिकोण उत्तराखंड के विभिन्न स्प्रिंग टाइपोलॉजी और भू-वैज्ञानिक विविधता में काम नहीं कर सकते हैं. उन्होंने उत्तराखंड में चाल (प्राकृतिक जल भंडारण), खाल (तालाब) की पहचान करने की आवश्यकता पर जोर दिया.
प्रख्यात जलविज्ञानी डॉ. एसके भरतरी ने सूखते जलस्रोतों सतही जल अपवाह और पुनर्भरण क्षेत्रों की पहचान में आइसोटोप पद्धति के उपयोग के तकनीकी वाले पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने अल्मोड़ा के कोसी बेसिन पर तीन दशक से भी पहले किए गए अध्ययनों से महत्वपूर्ण जानकारी साझा की. प्रसिद्ध पुरातत्वविद् प्रो. एमपी जोशी ने अतीत में प्रचलित जल प्रबंधन तकनीकों को प्रदर्शित किया और बताया कि किस तरह पारंपरिक जल प्रबंधन के बारे में समाज से ज्ञान लुप्त हो रहा है. सम्मेलन के संयोजक व सिडार के मुख्य कार्यकारी डॉ. विशाल सिंह ने भी उत्तराखंड के जल प्रवाह व उनके सरंक्षण पर अपनी बात रखी.
गोलमेज सम्मेलन में शामिल कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं में यह बात उभरकर आई कि उत्तराखंड राज्य के गठन के 24 साल बाद भी राज्य में ककरगर जल नीति नहीं है. इसी तरह भू-जल निकासी के नियम भी मनमाने हैं. सड़क व अन्य विकास निर्माण की तकनीक भी बेतरतीब हैं और इससे भू-जल स्रोतों पर असर पड़ सकता है. इसी तरह पुनर्भरण क्षेत्रों के संरक्षण पर भी बहुत कम ध्यान दिया जाता है. चरागाहों के महत्व को समझ कर उनके संरक्षण की दिशा में कार्य करना होगा क्योंकि वे भूजल पुनर्भरण में मदद करते हैं. साथ ही भारी मात्रा में कार्बन और जैव विविधता का संरक्षण भी करते हैं. विशेषज्ञ समूह ने राज्य में जल प्रबंधन और शासन को बेहतर बनाने के लिए एक प्रेशर ग्रुप विकसित करने पर जोर दिया. हिमालयी क्षेत्र उत्तराखंड में भविष्य में जनसंख्या और पर्यटन का दबाव बढ़ने वाला है, इसलिए जल प्रबंधन के संबंध में कुछ कदम तत्काल उठाए जाने चाहिए.
दून पुस्तकालय उत्तराखंड और हिमालय के संदर्भ में महत्वपूर्ण मुद्दों पर समय-समय पर गोलमेज चर्चा का आयोजन करता रहा है. पूर्व में केदारनाथ आपदा के आलोक में प्राकृतिक आपदा और उसके बाद वनाग्नि पर ऐसे दो गोलमेज सम्मेलन आयोजित किए जा चुके हैं. इस दौरान दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के प्रोग्राम एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी और सामाजिक इतिहासकार डॉ. योगेश धस्माना व सुंदर सिंह बिष्ट उपस्थित थे.
हिन्दुस्थान समाचार