इस देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराने के लिए हर वर्ग और समुदाय के लोगों ने बलिदान दिया. पुरुषों के साथ महिलाओं ने भी बड़ी संख्या में ब्रिटिश साम्राज्य को चुनौति दी. लेकिन उनमें कई ऐसे नाम हैं जिनकी शायद ही कभी चर्चा होती है. उन्हीं गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों में एक नाम है ‘वीर महिला’ का खिताब पाने वाली कल्पना दत्त का, जिन्होंने भारत की आजादी में बड़ा योगदान दिया.
14 की आयु में कल्पना दत्त ने दिया था इंकलाबी भाषण
27 जुलाई 1913 को चिट्टगौंग के श्रीपुर गांव में जन्मी कल्पना दत्त ने भेष बदलकर अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया. बता दें कि जिस जगह उनका जन्म हुआ वह अब बांग्लादेश का हिस्सा है. उस समय वह दौर था जब अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए मुहिम तेज हो रही थी. गुलामी की हवाओं में कल्पना दत्त बड़ी होती रहीं. चिट्टगौंग/चटगांव से ही प्रारंभिक शिक्षा हासिल की. धीरे-धीरे उनके अंदर भी देश को आजाद कराने की ललक उठने लगी.
इतिहासकारों के अनुसार, कल्पना महज 14 वर्ष की थीं जब उन्हें चटगांव के विद्यार्थी सम्मेलन में भाषण देने का मौका मिला जब उन्होंने इंकलाबी भाषण दिए. उनके भाषण को सुनकर लोगों को कल्पना की निडरता और गुलामी के प्रति सोच का एहसास कराया. कल्पना ने अपने भाषण में कहा था, ‘यदि दुनिया में हमें गर्व से सिर ऊंचा करके जीना है तो माथे से गुलामी का कलंक मिटाना होगा. साथियों, अंग्रेजों के चंगुल से आजादी पाने के लिए शक्ति का संचय करो, क्रांतिकारियों का साथ दो. अंग्रेजों से लड़ो.’
पढ़ाई के दौरान ही आजादी की लड़ाई में कूद पड़ीं
वर्ष 1929 में हाईस्कूल की परीक्षा पास कर कलकत्ता का रुख किया. यहां बेथ्यून कॉलेज में एडमीशन ले लिया. ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान कल्पना क्रांतिकारियों के बारे में भी पढ़ती रहीं. वो उनसे अत्याधिक प्रभावित हुईं. वह समय निकालकर तैराकी सीखती थीं और व्यायाम भी करती ताकि अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए शरीर को मजबूत बनाया जा सके. उस समय उनके चाचा आजादी के आंदोलनों में हिस्सा ले रहे थे.
आगे वह छात्र संघ से जुड़ गईं. जहां उनकी मुलाकात बीना दास और प्रीतिलता वड्डेदार जैसी आजादी के लिए सक्रिय भूमिका निभाने वाले मशहूर क्रांतिकारियों से हुई. 18 अप्रैल 1930 में जब क्रांतिकारियों ने ‘चटगांव शस्त्रागार लूट’ को अंजाम दिया तब कल्पना कोलकाता से वापस अपने गांव चटगांव लौट गईं. वह स्वतंत्रता सेनानी सूर्य सेन के संपर्क में थीं, जिन्हें क्रांतिकारी मास्टर दा के नाम से लोग जानते थे.
कल्पना दत्त उनके ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ में शामिल हो गईं और अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. चटगांव लूट के बाद कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया था. कल्पना भी अंग्रेजों की निगाहों में कील बन गई थीं.
लड़के के भेष में बम धमाका करने की बनाई योजना
संगठन के कई क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए थे लेकिन कल्पना क्रांतिकारियों को गोला बारूद पहुंचाने का काम करती रहीं. इसी के साथ ही उन्होंने अपने साथियों के साथ निशाना लगाना सीखा. जब बंदूक चलाने में निपुण हो गईं. तो कई बार ऐसे मोके आए जब उन्होंने सूर्य सेन और बाकी क्रांतिकारियों के साथ अग्रेजों का डटकर मुकाबला किया.
इसके बाद गिरफ्तार साथियों को जेल से रिहा कराने के लिए ब्रिटिश अदालत को बम से उड़ाने की योजना बनाई. उनके साथ उनकी साथी प्रीतिलता जैसी महिला क्रांतिकारी भी शामिल थीं.
सितंबर 1931 को कल्पना ने अपने साथियों के साथ हमला करने की एक तारीख तय की. इसके लिए उन्होंने अपना भेष बदला. रिपोर्ट्स के अनुसार, कल्पना ने लड़के की वेशभूषा में इस योजना को अंजाम देती लेकिन कहीं से उनके प्लान की सूचना अंग्रेजों तक पहुंच गई. उन्होंने योजना को अंजाम देने से पहले ही कल्पना को गिरफ्तार कर लिया. हालांकि सबूत ना मिलने की बुनियाद पर उन्हें रिहा कर दिया गया.
अंग्रेजों को कई बार चकमा देकर भागने में सफल रहीं
कल्पना ब्रिटिश सरकार की नजरों में आ चुकी थीं. सबूतों के अभाव में उन्हें रिहा तो कर दिया गया था लेकिन उन पर ब्रिटिश प्रशासन की पैनी नजर थी. उन्हें रिहा करने के बाद उनके घर पर पुलिस का पहरा लगा दिया गया. कल्पना वेश बदलने और पुलिस को चकमा देने में माहिर थीं. वह घर से भागने में कामयाब रहीं और सूर्य सेन से जाकर मिलीं. अगले दो साल तक छिपकर अंग्रेजों से लोहा लेती रहीं. दो वर्षों के बाद अंग्रेजों को सूर्यसेन के ठिकाने का पता लग गया. 16 फरवरी 1933 को पुलिस ने सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया लेकिन कल्पना अपने कुछ साथियों के साथ फिर से अंग्रेजों को चकमा देने में कामयाब रहीं और भाग गईं.
कल्पना अग्रेजों के साथ कई मुठभेड़ के दौरान भागने में कामयाब रही थीं. लेकिन मई 1933 को कल्पना और अग्रेज़ीं सेना का आमना-सामना हुआ. कल्पना चारों ओर से घिर चुकी थीं. वो आसानी से खुद को हवाले नहीं करना चाहती थीं. कुछ देर की मुठभेड़ के बाद उन्हें हाथियार डालना पड़ा. उनकी मुलाकात मिदनापुर जेल में महात्मा गांधी से भी हुई. उन्होंने अपनी पुस्तक ‘चटगांव शस्त्रागार हमला’ में इस बात का जिक्र भी किया है. उन्होंने लिखा है, “जेल में मुझसे गांधी मिलने आए. वे मेरी क्रांतिकारी गतिविधियों से नाराज थे. लेकिन उन्होंने कहा कि मैं फिर भी तुम्हारी रिहाई की कोशिश करूंगा.”
जेल से रिहा होकर राजनीति में रखा कदम
1939 में कल्पना जेल से रिहा हो गईं. वो अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की. इसके बाद सियासत में कदम रखा. वो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गईं. जेल में रहते हुए उनकी कई कम्युनिस्ट नेताओं से मुलाकात हुई थी. उन्होंने मार्क्सवादी विचारों को भी काफी पढ़ा था. वो उनके विचारों से काफी प्रभावित हुई थीं. 1943 को पार्टी के महासचिव पूरन चंद जोशी के साथ शादी कर ली. आगे 1943 में ही बंगाल के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कल्पना को अपना उम्मीदवार बनाया. वो चुनाव जीतने में असफल रहीं.
कल्पना दत्त को मिली ‘वीर महिला’ की उपाधि
आगे कुछ मतभेदों के चलते कल्पना के पति और उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया. उन्होंने चटगांव लूट पर आधारित अपनी आत्मकथा भी लिखी. वो बंगाल से दिल्ली आ गईं. वर्ष 1979 में कल्पना दत्त की बहादुरी और आजादी में दिए गए योगदान को देखते हुए ‘वीर महिला’ के खिताब से सम्मानित किया गया.
उन्होंने 8 फरवरी 1995 में इस दुनिया से अलविदा कह दिया. कल्पना पर एक किताब ‘डू एंड डाई:चटगाम विद्रोह’ लिखी गई. इनके ऊपर बॉलीवुड में ‘खेलेंगे हम जी जान से’ के नाम से फिल्म भी बनी जिसमें अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने उनका किरदार निभाया था.
तो ये थी उस आजादी की सिपाही कल्पना दत्त की कहानी, जिसने बड़ी बहादुरी और निडरता के साथ अंग्रेजों से मुकाबला किया. देश के लिए जेल भी गईं. आज उनकी बहादुरी पर देशवासियों को गर्व है.