– डॉ. विश्वास चौहान
मैं पिछले 24 वर्षों से लॉ स्टूडेंट्स को भारतीय संविधान पढ़ाते समय जब आर्टिकल 44 पढ़ाता हूँ तो समान नागरिक संहिता को सेक्युलर सिविल कोड की संज्ञा देता आया हूँ, जब लाल किले की प्राचीर से सुप्रीम कोर्ट के माननीय चीफ जस्टिस एवं अन्य न्यायाधीशों की उपस्थिति में प्रधानमंत्री ने भी समान नागरिक संहिता को “सेकुलर” सिविल कोड कहा है क्योंकि भारत केवल और केवल तभी एक सेकुलर राष्ट्र माना जाएगा, जब यहां पर एक यूनिफॉर्म सिविल कोड होगा.
वस्तुत: इस यूनिफॉर्म कोड के बारे में बात करते समय कुछ तकनीकी बिंदुओं को स्पष्ट कर लेना जरूरी होगा. सबसे पहली बात तो यह कि संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 44 में यह साफ लिखा गया है कि “राज्यसत्ता भारत के नागरिकों पर एक समान नागरिक संहिता लागू करेगी.” जब भारतीय जनता पार्टी समान नागरिक संहिता की बात करती है तो इसे विपक्षी दलों द्वारा एक “सांप्रदायिक एजेंडा” क़रार दिया जाता है. अव्वल तो यह “हिंदू सिविल कोड” नहीं, बल्कि कॉमन सिविल कोड है, और दूसरे “निर्देशक सिद्धांतों” के अनुसार इसका एक संवैधानिक आधार है. इस बात को सबको स्मरण में रखना चाहिए.
दूसरे, जहां समान नागरिक संहिता का एक संवैधानिक आधार है, वहीं धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का कोई संवैधानिक आधार नहीं है. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी “पंथनिरपेक्ष” शब्द बाद में जोड़ा गया है. अब जब प्रस्तावना में दिनांक सहित लिखा हो कि …..अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 ई. को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।” ……तो बाद में इस प्रस्तावना में कुछ भी जोड़ना कुटकरण का अपराध होता है. क्योंकि जो कुछ भी संविधान सभा ने तय किया वो 26 नवम्बर 1949 को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित हो चुका है, समाजवादी और पंथ निरपेक्ष 1976 में जोड़े गए ..इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट में निर्णय सुरक्षित रखा गया है.
अतः स्पष्ट है कि वास्तव में “सेकुलरिज्म” भारतीय संविधान का हिस्सा मूल रूप से नहीं था. इंदिरा गांधी ने आपातकाल के दौरान 1976 में आनन-फानन में विवादास्पद 42वां संविधान संशोधन करते हुए इसे संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा था. किंतु धर्म और राज्य के सम्बंधों के स्वरूप की सुस्पष्ट व्याख्या संविधान में कहीं भी नहीं की गई है. तो फिर दुविधा कहां पर है? दुविधा के मूल में है संविधान का अनुच्छेद 25, जो कहता है कि भारत के नागरिकों को अपने धर्म के अनुपालन और प्रचार की स्वतंत्रता है. अलबत्ता उसमें यह भी कहा गया है कि यह स्वतंत्रता निर्बाध नहीं है, यह सार्वजनिक नैतिकता और व्यवस्था के अनुरूप होनी चाहिए. फिर इसी अनुच्छेद के दूसरे क्लॉज में यह भी साफ शब्दों में लिखा गया है कि इस अनुच्छेद का कोई भी प्रावधान राज्यसत्ता द्वारा क़ानून-निर्माण की प्रक्रिया में बाधा नहीं बनना चाहिए.
दूसरे शब्दों में, अगर सत्तारूढ़ दल समान नागरिक संहिता सम्बंधी संवैधानिक प्रावधानों की सुस्पष्ट और सतर्क व्याख्या कर सके तो वह अपने पक्ष में व्यापक जनमत का निर्माण कर सकता है. इसके लिए भारत सरकार ने वर्तमान में “हमारा संविधान हमारा सम्मान” के नाम से अभियान चलाया है. खुद को उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष कहने वाली जो फिरकापरस्त ताकतें जो वर्तमान विपक्ष में हैं, वे समान नागरिक संहिता का विरोध करती हैं, वे वास्तव में “मुस्लिम पर्सनल लॉ” की रक्षा करना चाहती हैं, किंतु वैसा वे अनुच्छेद 25 की आड़ में करती हैं, इस खेल को समझना बहुत जरूरी है. इन फिरकापरस्त ताकतों को और कुछ नहीं तो कम से कम संविधान सभा की बहसें ही पढ़ लेना चाहिए. जब संविधान सभा में अनुच्छेद 25 पर बहस चल रही थी तो 6 दिसम्बर 1948 को ओडिशा के नेता श्री लोकनाथ मिश्रा ने तीन बहुत पते की बातें कही थीं.
उन्होंने कहा था-
1) दुनिया के किसी भी देश के संविधान में धर्म के “प्रचार” को मूलभूत अधिकार का दर्जा नहीं दिया गया है, तो फिर हमारे यहां वैसा क्यों किया जा रहा है?
2) आयरलैंड के संविधान में बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक आस्था को “राजधर्म” जैसी विशेष अवस्था प्रदान की गई है, फिर हमें भारत में वैसा करने में लज्जा क्यों आ रही है?
3) सोवियत रूस में धर्म के अनुपालन की आजादी दी गई है तो धर्म-विरोधी प्रचार को भी उतनी ही आजादी दी गई है. यह इस्लामिक देशों के “ईशनिंदा कानून” के सर्वथा विपरीत है, जहां ईश्वर की सत्ता पर किसी तरह का प्रश्न पूछे जाने को “कुफ्र” कहते हुए उसे एक अपराध माना जाता है. हमारे संविधान में धर्म-विरोधी प्रचार का कोई अधिकार क्यों नहीं दिया गया है?
हमें यह याद रखना चाहिए कि जिन परिस्थितियों में भारत का संविधान रचा जा रहा था, वह अत्यंत कठिन समय था और सांप्रदायिक विभाजन से भारत देश की आत्मा कराह रही थी. वैसे में पहले ही दब्बू किस्म के भारतीय नेतागण “इस्लामिक पर्सनल लॉ” के मामले में और जोखिम लेने से थर-थर कांप रहे थे. लेकिन संविधान सभा के चेयरमैन डॉ. भीमराव आम्बेडकर स्वयं “समान नागरिक संहिता” के प्रबल पक्षधर थे, इस बात को हमारे उदारवादी बंधुओं को स्मरण रखना चाहिए. जब संविधान सभा में एक मुस्लिम के सदस्य द्वारा कहा गया कि भारत जैसे बड़े देश में समान नागरिक संहिता सम्भव नहीं है तो आम्बेडकर ने गरजते हुए जवाब दिया- “जब समान अपराध संहिता हो सकती है तो समान नागरिक संहिता क्यों नहीं हो सकती?”
इसके बाद आम्बेडकर ने जो प्रहार किया, वो तो और करारा था. जब मुस्लिम सदस्य ने कहा कि हमारे पर्सनल लॉ में बदलाव करना किसी के लिए सम्भव नहीं है तो आम्बेडकर ने उन्हें याद दिलाया कि 1935 तक नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस में शरीयत कानून लागू नहीं थे. साथ ही, बॉम्बे, सेंट्रल प्रोविंसेस और यूनाइटेड प्रोविंसेस में तो उत्तराधिकार के कानून हिंदू विधि के अनुरूप संचालित हो रहे थे. इतना ही नहीं, केरल में रह रहे मुस्लिम तो मातृसत्तात्मक “मरुमक्कथयम्” कानून का पालन करते आ रहे थे. इसके बाद शरीयत का राग अलापने वाले वे मुस्लिम सदस्य बगलें झांकने लगे.
“मीम-भीम गठबंधन” के पैरोकार आम्बेडकरवादियों को आज उनके पूज्य बाबासाहेब की ये दलीलें याद दिलाने की जरूरत है. अंत में संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों ने “अल्पसंख्यकवाद” का तीर तरकश से निकाला और कहा समान नागरिक संहिता भारत में बहुसंख्यकवाद की सत्ता की प्रणेता सिद्ध होगी. अब श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी इसका उत्तर देने के लिए आगे बढ़े. इस पुण्यकर्म के लिए उनसे बेहतर और कौन हो सकता था? उन्होंने प्रतिप्रश्न किया कि तुर्की और मिस्र जैसे “उन्नत” इस्लामिक देशों में भी वहां के अल्पसंख्यकों को उनके निजी कानूनों का पालन करने का अधिकार नहीं है, इस पर आप क्या कहेंगे? आगे उन्होंने कहा- यूरोप के देशों में समाज के सभी वर्गों को समान नागरिक संहिता का ही पालन करना होता है, इस पर आपके क्या विचार हैं?
सबसे अंत में उन्होंने कहा- खोजा और कुची मेमन सम्प्रदाय अनेक पीढ़ियों से हिंदू कानूनों का ही पालन करते आ रहे थे, उल्टे उन पर 1937 के “सेंट्रल लेजिस्लेचर” द्वारा शरीयत कानून जबरन थोप दिया गया था, तब आपका अल्पसंख्यकवाद कहां चला गया था? संविधान सभा में समान नागरिक संहिता पर जो बहसें हुई हैं, उनका विस्तार से अध्ययन आज हर भारतीय को करना चाहिए, ताकि अनुच्छेद 25 का हवाला देने वाले उदारवादियों का डटकर मुकाबला किया जा सके. लोकतंत्र में जनमत ही सबसे बड़ी ताकत होता है. एक बार किसी चीज को लेकर सशक्त जनमत का निर्माण हो गया तो सरकारें फिर उसकी उपेक्षा नहीं कर सकतीं. और अगर जनमत सो रहा है, तब भी राष्ट्रवाद का दम भरने वाली सत्तारूढ़ पार्टी का यह धर्म है कि राष्ट्रहित में कड़े निर्णय लेने की राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखलाए. जब इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा था, तब उनके पास 352 सीटें थीं. 2014 में भाजपानीत गठबंधन 334 सीटें जीतकर सत्ता में आया था. तो सवाल सीटों का नहीं, संकल्प का है. भारत के प्रधानमंत्री के पास असीमित शक्तियां होती हैं, इसे स्मरण रखना चाहिए.
जब इंदिरा गांधी जेपी के नेतृत्व में छेड़े गए एक “सिविल सोसायटी” आंदोलन से घबराकर “आपातकाल” लगा सकती हैं तो मौजूदा सरकार प्रबल जनमत का निर्माण करके “समान नागरिक संहिता” क्यों नहीं लागू कर सकती? इसके लिए संविधान सभा की डिबेट्स में दिए गए तर्कों को फिर से “पब्लिक डोमेन” में उछालना भर होगा, “सोशल मीडिया” उसको देखते ही देखते लपक लेगा, और फिर जनजागरण का एक चक्र चल पड़ेगा. हमारा संविधान हमारा सम्मान है यह कहने का अब समय आ गया है, जब यह कहा जायेगा तो वो लोग नग्न हो जाएंगे जो संघ परिवार पर संविधान को बदलने का आरोप लगाकर अपनी कुछ सीटें लोकसभा में बढ़ाने में सफल हो गए.
(लेखक प्रोफेसर लॉ हैं.)
हिन्दुस्थान समाचार