उत्तराखंड में हर साल गर्मियों के सीजन में जंगलों में आग लगने की घटनाएं सामने आती हैं. इससे न केवल बड़े बहुमुल्य वनसंपदा को नुकसान पहुंचता है बल्कि लाखों-करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिये जाते हैं. आखिर में सब बेअसर ही साबित रहता है, न तो जंगल बच पाते हैं और न ही आग बुझ पाती है. जब कई मशक्कत के बाद स्थिति काबू में नहीं आ पाती तो सबकी नजरें आसमान की तरफ जाकर बारिश पर ही टिक जाती है.
प्रदेश में ज्यादातर इलाका जंगल है जोकि वन विभाग के अंतर्गत के आता है. हर बार गर्मियों का सीजन शुरू होते ही लगातार आग की घटनाएं सामने आती हैं. धधकते जंगल कई किलोमीटर के एरिया को अपनी तरफ ले लेते हैं और स्वाहा कर देते हैं. वन संपदा का इतने बड़े पैमाने पर नुकसान पर्यावरणीय संकट की तरफ इशारा करता है.
वनाग्नि की समस्या कई राज्यों में पाई जाती है जहां सूखा और नमी कम होने के कारण हर साल कई जंगल आग में धधकते हैं. इन पर काबू पाना मुश्किल हो जाता है. उत्तराखंड भी ऐसा ही एक राज्य है जहां हर साल बड़े पैमाने पर आग लगने की घटनाएं सामने आती है और करोड़ों की संपत्ति स्वाहा हो जाती है. इसके पीछे कई वजह जिम्मेदार हैं जिसमें से कुछ इस प्रकार से हैं-
जंगल की प्रकृति
बता दें कि उत्तराखंड के जंगलों में चीड़ के पेड़ बहुतायत में पाए जाते हैं. इन्हें लेकर बताया जाता है कि अंग्रेजों ने तारकोल बनाने के लिए इन पेड़ों को बहुतायत में लगाया था. इन चीड़ के पेड़ों से बहुत मात्रा में एक तरल पदार्थ निकलता है जिसे लीसा कहा जाता है. पेड़ की पत्तियों वाले भाग में सबसे ज्यादा लीसा पाया जाता है.
चीड़ का पेड़ जितना उपयोगी होता है उतना ही इसका नुकसान भी होता है. इसकी पत्तियों को स्थानीय भाषा में पीरूल कहा जाता है जिसमें तेल की मात्रा ज्यादा होने से ये जल्द आग पकड़ लेती है.
मौसम देता है बढ़ावा
प्रदेश में ज्यादातर जंगलों में लगने वाली आग में मौसम भी जिम्मेदार होता है. शुष्क मौसम जहां एक तरफ आग लगाने का काम करता है तो वहीं लगातार चलने वाली तेज हवाएं इसे दूर तक फैलाने के लिए जिम्मेदार है. यह सब इतना जल्दी और तेजी से होता है कि सारे प्रयास धरे रह जाते हैं.
दुर्गम पहाड़ी इलाकों में आग बुझाने की समस्या
ऊंचे पहाड़ी इलाकों में वनाग्नि को बुझाने में बड़ी समस्याएं आती है. जहां एक तरफ दुर्गम पहाड़ी रास्तों तक पहुंच पाना कठिन होता है तो वहीं केवल सीमित मात्रा में सामान पहुंचने के लिए वो सामान में किसी तिनके के समान ही होता है.
मानव कृत्यों से आग
कई बार लोगों की गलतियों की वजह से भी आग लग जाती है, जो बाद में बुझने की जगह आगे और फैलती जाती है. कई बार लोग ट्रेकिंग पर जाने के दौरान आग जलाते हैं मगर बाद में उसे बुझाना भूल जाते हैं. वहीं सिगरेट माचिस आदि बिना बुझाएं जंगलों में फेंकने के चलते भी आग लग जाती है.
वनाग्नि से होती है जन हानि
जंगलों में लगने वाली आग से चलते हर साल जनहानि होती है. साल 2014 से अब तक इसके चलते 18 लोगों की मौत हो चुकी है साथ ही बड़ी संख्या में लोग आग से झुलसे हैं. वहीं अकेले 2024 में ही 10 लोगों की जान जा चुकी है. उत्तराखंड में 2024 में आग की 1,276 घटनाएं हुईं, जिसमें 1771.76 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ. वहीं इससे पहले 2023 में 773 घटनाओं और 933.55 हेक्टेयर वन भूमि से अधिक था.
वनाग्नि को रोकने के लिए उपाय
वनाग्नि पर नियंत्रण पाने के लिए हर साल प्रदेश सरकार और लोगों की तरफ से कई सामुहिक प्रयास किए जाते हैं. इसमें से कुछ महत्वपूर्ण उपाय इस प्रकार से हैं.
जागरूकता अभियान
ग्रामीण और सुदूर इलाकों में वनाग्नि को रोकने के लिए लोगों के बीच जागरूकता अभियान चलाये जा सकते हैं. ताकि लोगों के अंदर ज्यादा से ज्यादा सूचनाओं को प्रवाह हो सके और मौत के आंकड़ों को कम किया जा सके.
ज्यादा पेड़ लगाकर
आग लगने की घटनाएं ज्यादातर ऐसे इलाकों में होती है. जहां पिरूल और घास के मैदान ज्यादा होते हैं. ऐसे में ज्यादा से ज्यादा वृक्षारोपण करके जंगलों की आग को कम किया जा सकता है. इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन ठीक होगा बल्कि वनाग्नि की घटनाएं कम हो जाएंगी.
सरकारी प्रयास
जंगलों की आग को कम करने के लिए सरकार की तरफ से भी कई प्रकार की मुहिम चलाई जाती हैं. बांबी बकेट और वायु सेना की तरफ से पिछले साल कई तरह के अभियान चलाए जा चुके हैं. इसके साथ ही हेलिकॉप्टर मदद से भी पानी और रसायन छिड़का जाता है.