भारतीय ग्रंथों में कथाएँ केवल भक्ति या मनोरंजन केलिये नहीं हैं और न घटनाक्रमों का कोई नाटकीय विवरण है। हर कथा का अपना संदेश है । ताकि मनुष्य सफलतापूर्वक अपना लक्ष्य प्राप्त कर सके। रामचरितमानस के कालकेतु और कालनेमि प्रसंग में यही संदेश है। यदि कपटमुनि को पहचान लिया तो सफलता और न पहचाना तो सर्वनाश निश्चित है।
तुलसीकृत रामचरितमानस का प्रत्येक प्रसंग समाजिक जीवन के लिये एक सार्थक संदेश है। इसी श्रृंखला में ये दोनों प्रसंग हैं। कालकेतु का पहला प्रसंग बालकाँड में दोहा क्रमांक 155 से 185 तक लगभग सौ चौपाइयों में है। राजा प्रतापभानु एक सदाचारी और प्रजा वत्सल राजा थे। उनसे पराजित एक राजा ने कपट पूर्वक एक मुनि का वेष बनाया और राजा को सम्मोहित कर लिया। इतना करके कालकेतु नामक राक्षस को रसोइया बनाकर राजा के यहाँ भेज दिया। राजा ने ऋषियों और ब्राह्मणों को भोजन पर आमंत्रित किया। कालकेतु ने षड्यंत्र करके माँस परोस दिया। इससे ऋषि क्रोधित हुये राजा को श्राप दिया और सर्वनाश हो गया। तुलसीदास जी ने बहुत स्पष्ट “कपट मुनि” लिखा है। राजा के विनाश का कारण नकली भक्ति से प्रभावित होकर कपटमुनि के षड्यंत्र में फँस जाने से हुआ।
दूसरा प्रसंग लंका काँड में राक्षस कालनेमि का है। वह रावण का दरबारी था,रावण की योजना से हनुमान जी का मार्ग रोकने आया था, हनुमान जी ने पहचान लिया और उसका अंत करने में कोई विलंब न किया। रामचरित मानस के लंकाकांड में यह कालनेमि प्रसंग दोहा क्रमांक 56, 57 और 58 के बीच कुल ग्यारह चौपाइयों में आया है। कथानुसार राम रावण युद्ध में लक्ष्मणजी मारक शक्ति के प्रहार से अचेत हो गये थे । उपचार के लिये वैद्यराज सुषेण ने बताया कि संजीवनी बूटी से प्राण बचाये जा सकते हैं। हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने रवाना हुये। औषधि लेकर उन्हे सूर्योदय से पूर्व लौटना था।
रावण ने हनुमान जी को रास्ते में उलझाने के लिये एक षड्यंत्र किया ताकि हनुमान जी को मार्ग में विलंब हो और वे सूर्योदय तक न लौट सकें। रावण की योजनानुसार राक्षस कालनेमि ने साधु वेष धारण किया और माया से आसपास का वातावरण भक्तिमय बनाया। स्वयं बैठकर राम नाम जपने का अभिनय करने लगा। हनुमान जी ने रामजी का नाम सुना, सामने एक संत को रामभक्ति में डूबा हुआ देखा तो उससे प्रभावित होकर रुक गये। हनुमान जी श्रद्धा सहित संत वेश में बैठे कालनेमि के पास पहुँचे। प्रणाम किया। संत रूपी कालनेमि ने मोहक और मीठी बातों से हनुमान जी को भ्रमित कर दिया।
तुलसीदास जी ने कालनेमि को भी “कपट मुनि लिखा है। कपट मुनि कालनेमि” ने यात्रा सुगम बनाने और औषधि की पहचान बताने का लालच देकर हनुमान जी को स्नान करने भेज दिया ताकि विलंब हो और हनुमान जी सूर्योदय से पूर्व औषधि लेकर लंका न लौट सकें। हनुमान जी कालनेमि की बातों में आ गये और अपना लक्ष्य भूलकर स्नान करने चले गये। वहाँ उन्हे एक देव कन्या मिली। उसने सचेत किया कि यह संत बनावटी है। इसका उद्देश्य आपको भ्रमित करना है। हनुमान जी सतर्क हुये, वे धीरे से आये,प्रणाम करने के बहाने से “कपट मुनि” के पास पहुँचे और उस छद्म वेषधारी राक्षस कालनेमि को दंडित करके अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ गये। अब यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि देव कन्या हनुमान जी को सतर्क न करती और उन्हे सत्य समझने में विलंब हो जाता तब क्या औषधि लेकर समय पर लौट सकते थे? और क्या लक्ष्मणजी के प्राण बच सकते थे? रामकाज पूरा हो सकता था?
राजा प्रतापभानु की कथा और कालकेतु प्रसंग एवं बूटी लाने केलिये हनुमान जी के मार्ग में कालनेमि की माया का यह प्रसंग बाल्मीकि रामायण में नहीं है। बाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण जी के अचेत होने,वैद्यराज सुषेण के आने और हनुमान जी द्वारा औषधि लाने का वर्णन तो है पर राक्षस कालनेमि द्वारा नकली भक्त बनकर हनुमान जी को भ्रमित करने का कथानक नहीं है। तब यहाँ प्रश्न भी उठता है कि तुलसीदास जी द्वारा इन प्रसंगों को विस्तार देने का उद्देश्य क्या है? दोनों प्रसंगों में उन्होंने “कपट मुनि” शब्द का प्रयोग किया है। एक प्रसंग में कपट मुनि के सत्य को न समझने से सर्वनाश को प्राप्त हुये राजा प्रतापभानु। लेकिन दूसरे प्रसंग में हनुमान जी सतर्क हुये और अपना लक्ष्य समय पर पूरा कर सके।
तुलसीदास जी का जन्म मध्यकाल में हुआ।
रामचरित मानस का रचनाकाल भी वही है। वह समय भारतीय जन मानस और सनातन संस्कृति के लिये संक्रमण का समय था। विषमता, विपत्ति और विध्वंस का वातावरण था यह सब भारतीय समाज को भ्रमित करके बनाए गये वातावरण के कारण था। भय एवं लालच समाज अपनी परंपराएँ और लक्ष्य भूल रहा था। मुगलकाल में चित्ताकर्षक वातावरण बनाकर भटकाने की योजना भी आरंभ हुई। इससे समाज भ्रमित होने लगा और आत्मविश्वास टूटने लगा था।
भारतीय रियासतों को भ्रामक सपनों में उलझाकर आपस में लड़ाने के षड्यंत्र चल रहे थे तो वहीं कुछ “कपट मुनि” धार्मिक टोलियाँ बनाकर समाज में सक्रिय थे,जो भविष्य की सुरक्षा और सुखद भविष्य का भ्रम फैलाकर अपनी ओर आकर्षित करने के षड्यंत्र कर रहे थे। ताकि भारतीय जन अपनी परंपरा और धर्म से दूर हो जाये। निश्छल स्वभाव और दूसरे की बातों में सरलता से आ जाने वाला भावुक भारतीय जनमानस के भ्रमित होने की गति बढ़ गई थी। सतर्क, संगठित होकर शत्रु से सामना करने के बजाय परस्पर अविश्वास और आशंकाओं में उलझने की मानसिकता बढ़ रहीं थीं। इसका लाभ विध्वंसकारी शक्तियाँ उठा रहीं थीं।
परिस्थियाँ कुछ ऐसी थीं कि समाज को बचाने के लिये सीधा सीधा कुछ नहीं कहा जा सकता था। न तत्कालीन सत्ता के अत्याचारों के बारे में सचेत किया जा सकता था और न सतर्क संगठित होकर दासत्व से मुक्ति संघर्ष का आव्हान ही किया जा सकता था। भारतीय समाज की यह दुर्दशा देखकर संत तुलसीदास जी ने स्वत्व और स्वाभिमान को जाग्रत करने के लिये साहित्य रचना को माध्यम बनाया। तुलसीदासजी की हर रचना में समाज जागरण का आव्हान है। सतर्क, सशक्त, संगठित और जागरुक बनने का संदेश है। तुलसीदास जी जानते थे कि यदि समाज सत्य से अवगत हो गया तो फिर स्वाधीनता संग्राम सरल होगा। संभवतः इसीलिये उन्होंने रामकथा के प्रसंगों को विस्तार दिया। तुलसीदास जी ने राक्षसों के अत्याचार का जो विवरण मानस में दिया है वह ठीक वैसा ही है जैसा कालखण्ड में भारतीय समाज झेल रहा था।
इसलिए तुलसीदास जी ने राक्षसी षड्यंत्र, रामजी द्वारा संपूर्ण समाज को एक सूत्र में पिरोने, और अत्याचारियों के अंत करने के प्रसंगों को अधिक विस्तार दिया है। तुलसीदास जी द्वारा वर्णित कालनेमि प्रसंग को भी इसी रूप में समझा जाना चाहिए। उन्होंने इन दोनों प्रसंगों के माध्यम से यह संदेश देने का प्रयास किया है कि समाज किसी “कपट मुनि” के जाल में फँसे, किसी मोहक दिखावे से भ्रमित न हो, लालच में फँसें। एक ओर सूफी अभियान से भारतीय समाज को मंदिरों से दूर हो रहा था वहीं पीर फकीरों की टोलियाँ चमत्कार दिखाकर भारतीय समाज को लक्ष्य और मार्ग दोनों से भटक रहीं थीं। तब तुलसीदासजी और अन्य संतों ने भक्तिरस का संचार किया।
यह मध्यकाल के भक्ति आँदोलन की शक्ति ही थी कि समाज में जाग्रति आई और स्वाधीनता के लिये जन सामान्य का संघर्ष आरंभ हुआ । हनुमान जी असाधारण थे। वे भगवान शिव के अंश हैं ग्यारहवें रुद्र हैं भला उन्हें कोई भ्रमित कर सकता है? फिर भी उन्होंने लीला की, भ्रमित होने का अभिनय किया तथा सत्य समझने के लिये देव कन्या को निमित्त बनाया। दूसरा विषय कालनेमि का है। कालनेमि के मन में रामजी के प्रति श्रृद्धा थी पर वह रावण काज करने निकला था। इसलिये हनुमान जी ने कालनेमि को दंडित करने में कोई संकोच न किया।
समय के साथ कुछ बातें या तरीके बदल जाते हैं। पर कुछ बातें कभी नहीं बदलतीं। नकली संत बनकर कालकेतु ने जैसा राजा प्रतापभानु को भ्रमित किया, ऐसा षड्यंत्र किया कि पूरा संत और सात्विक समाज राजा के विरुद्ध हो गया । राजा का विनाश हुआ । लेकिन हनुमान जी समय रहते सतर्क हो गये तो लक्ष्य समय पर पूरा हो गया। राजा प्रतापभानु और हनुमान जी भ्रमित करने के जो तरीके तब कालकेतु और कालनेमि ने अपनाया था। वैसे तरीके आज भी अपनाये जा रहे हैं। कितने नकली संत हैं जो जनास्था के भोलेपन का लाभ उठाकर शोषण कर रहे हैं, और कितने बहरूपिये हैं जो नकली रामभक्त बनकर दिखावटी भक्ति से समाज को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। हो सकता है कोई व्यक्ति अपने आप में अच्छा हो पर वह किसके लिये काम कर रहा है। इस पर विचार आवश्यक है।
हनुमान जी बल बुद्धि के निधान थे, जो समय रहते सतर्क हो गये। कालनेमि को दंडित करके अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ गये। आज समाज में कितने लोग हैं जो इस प्रकार के षड्यंत्र में उलझकर बच सकते हैं? और इस बात की संभावना भी कम है कि देवकन्या की भाँति कोई समय पर आकर हमें सतर्क कर दे। आंकड़े बताते हैं कि केवल बीस प्रतिशत लोग ही ऐसे होते हैं जो षड्यंत्र के प्रथम चरण में उलझकर भी सुरक्षित निकल आते हैं। शेष अस्सी प्रतिशत को भारी क्षति उठानी पड़ती है। ऐसे समाचार प्रतिदिन समाचार पत्रों में आते हैं। इसलिये बहुत आवश्यक है कि व्यक्ति सावधान रहे।
किसी पर विश्वास करके उसकी बातों में आने से पहले उसकी भूमिका का सत्यापन करना आवश्य है। प्रलोभन देने वालों से बचना और नकली भक्तों से सतर्क रहने में ही समाज और राष्ट्र का भविष्य सुरक्षित हो सकेगा। रामकथा में यह कालकेतु और कालनेमि प्रसंग आज भी उतने ही उपयोगी हैं जितने तब थे। चारों ओर कपट मुनि घूम रहे हैं। वे “रावण काज” करने निकले हैं। उनके मुख में राम हैं, पर बगल में छुरी है । समाज को सतर्क रहकर भ्रमित न होना। यही संदेश आज के समाज को रामचरितमानस के इन प्रसंगों में है।
लेखक- रमेश शर्मा